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अर्थ, आशय, अभिप्राय, तात्पर्य और भावार्थ ये पाँचों शब्द प्रायः समानार्थी माने जाते हैं। शब्दकोश भी इनके अर्थ मिलते-जुलते देते हैं किंतु सूक्ष्म रूप से देखें तो इनमें निश्चय ही कुछ अंतर है । अर्थ से तात्पर्य सामान्यतः शब्दार्थ से होता है। आप किसी उक्ति, कथन में प्रयुक्त शब्दों के अर्थ जानते हैं तो आप उक्ति का सामान्य अर्थ भी जानते हैं। उस अर्थ को बता भी सकते हैं। आशय आशय और अर्थ में बस इतना ही अंतर है कि शब्दों का अलग-अलग अर्थ जाने बिना भी आप संदर्भ समझते हुए बात का आशय ग्रहण कर लेते हैं। तात्पर्य इससे कहीं आगे हैं। यह तत्परता का दूसरा रूप है। तत्पर अर्थात उसके बाद आने वाला (तत् परम्)। जब आप किसी बात के गूढ़ अर्थ समझाने लगते हैं, एक के बाद एक उसकी परतें खोलने लगते हैं, तब आप तात्पर्य समझा रहे होते हैं और दूसरा भी तात्पर्य ग्रहण कर रहा होता है। अभिप्राय इसमें अभि उपसर्ग है और इसका आशय गति करने के निकट है (संस्कृत √इ धातु, अभि और प्र उपसर्ग) अर्थात आप अगले के भावों तक पहुंचते हैं। अपना अभिप्राय स्पष्ट करते हैं तो उसमें आपकी राय, आपकी धारणा भी दूसरे तक...
ऐसे अनेक प्रकार के उदाहरण हैं। जैसे नीचे दिए गए शब्दों में उनके साथ कोष्ठक के शब्द हिंदी व्याकरण के अनुसार ग़लत और त्याज्य हैं। कागज़ - कागज़ों (कागज़ात, कागजातों) जज़्बा - जज़्बों (जज़्बात, जज़्बातों) फ़साद - फसादों ( फ़सादात, फ़सादातों) ज़ुल्म - ज़ुल्मों (जुलमात, जुलमातों) संदर्भ और प्रयोग के अनुसार कभी-कभी कागज़ और कागज़ात भिन्नार्थक भी हो सकते हैं। जैसे: 1. चार सफ़ेद कागज़ दीजिए । 2.मकान के कागज़ात कहाँ रखे हैं? दोनों बहुवचन हैं, किंतु प्रयोग में भिन्नार्थी शब्द हैं। अरबी फ़ारसी से आगत शब्दों के बारे में अनेक आग्रह हैं। कहते हैं फ़ारसी 'पैवंद' हिंदी में 'पैबंद' हो गया जो है । यह तो तद्भवीकरण की प्रक्रिया है और हिंदी की सहज प्रवृत्ति भी । हिंदी में अधिकतर शब्द बदले रूप में ही प्रयुक्त होते हैं जैसे 'मुआमलह' < 'मामला', 'ज़ियादह' < 'ज़्यादा'। अरबी में "हाल" पुल्लिंग है, "हालत" स्त्रीलिंग, बहुवचन "हालात" पुल्लिंग। वैश्विक नियम है कि आगत शब्दों में व्याकरण नियम ग्रहण करने वाली भाषा के लगेंगे। हम मूल...
भारतीय भाषाओं में कुछ ध्वनियाँ ऐसी हैं जिनके आंचलिक उच्चारण कालांतर में मूल से छिटक गए हैं। कुछ समय के साथ लुप्तप्राय हो गए, कुछ बहस का मुद्दा बने और कुछ मिलती-जुलती ध्वनि के भ्रम में फँस गए। उच्चारण के विषय में इस प्रकार की दुविधा को देखते हुए मैं समय-समय पर भाषा, लिपि और ध्वनियों की बारीकी स्पष्ट करते हुए आलेख प्रकाशित करने को प्रतिबद्ध हूं। आगामी हिन्दी दिवस पर इसी शृंखला में एक और बड़े भ्रम पर बात करना स्वाभाविक ही है। यह भ्रम है श और ष के बीच का। भारतीय वाक् में ध्वनियों को जिस प्रकार मुखस्थान या बोलने की सुविधा के हिसाब से बाँटा गया है उससे इस विषय में किसी भ्रम की गुंजाइश नहीं रहनी चाहिए क्योंकि इसका वर्गीकरण वैज्ञानिक है परंतु हमारे हिन्दी शिक्षण में जिस प्रकार सतर्कता के अभाव के साथ-साथ तथाकथित विद्वानों द्वारा परंपरा के साथ अस्पृश्यता का व्यवहार किया जाता है उससे ऐसे भ्रम पैदा होना और बढ़ना स्वाभाविक है। ष की बात करने से पहले सरलता के लिये आइए आरंभ "श" से करते हैं। श की ध्वनि सरल है। आमतौर पर विभिन्न भाषाओं में और भाषाओं से इतर आप श (SH) जैसी जो ध्वनि बोलते सुनते हैं...
रीतिकाव्य रीतिबद्ध' रचना लक्षणों और उदाहरणों से युक्त होती हैं । रीतिबद्ध कवि वे हैं, जिन्होंने रीतिग्रंथों की रचना न करके काव्य-सिद्धांतों या लक्षणों के अनुसार काव्य-रचना की है। अलंकार, रस, नायिकाभेद, ध्वनि आदि उनके ध्यान में तो रहें हैं, परंतु उनका प्रत्यक्षतः निरूपण इन कवियों ने नहीं किया है, वरन् उनके अनुसार उत्कृष्ट काव्य का सृजन किया है। आचार्य विश्वनाथप्रसाद जी के अनुसार जो रीतिसिद्ध कवि हैं वही डॉ. नगेन्द्र के अनुसार रीतिबद्ध कवि हैं! हिंदी साहित्य का इतिहास : डॉ.नगेन्द्र 1. आचार्य विश्वनाथप्रसाद मिश्र 2. डॉ नगेन्द्र
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